Farishton Ka Geet | फरिश्तों का गीत
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Bal-e-Jibreel
नक़्शगर-ए-अज़ल! तेरा नक़्श है ना-तमाम अभी ।01।
ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की घात में रिन्द-ओ-फ़क़ीह-ओ-मीर-ओ-पीर
तेरे जहाँ में है वही गर्दिश-ए-सुबहो शाम अभी ।02।
तेरे अमीर माल मस्त, तेरे फ़क़ीर हाल मस्त
बन्दा है कूचा गर्द अभी, ख़्वाजा बुलन्द बाम अभी ।03।
दानिश-ए-दीन-ओ-इल्म-ओ-फ़न बन्दगी-ए-हवस तमाम
इश्क़-ए- गरह कुशाए का फ़ैज़ नहीं है आम अभी ।04।
जौहर-ए-ज़िन्दगी है इश्क़, जौहर-ए-इश्क़ है ख़ुदी
आह क: है यह तेग़-ए-तेज़ पर्दगी-ए-नयाम अभी! ।05।
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व्याख्या:
अल्लामा इक़बाल ने यह कलाम अपनी दूसरी रचना लेनिन (ख़ुदा के हुज़ूर में) के बाद लिखा है। ये दो कलाम अल्लामा के तीसरे कलाम फ़रमाने ख़ुदा के साथ पढ़े जाने चाहिए। क्योंकि ऐसा करने पर ही अल्लामा का पूरा सन्देश समझ में आएगा। इस रचना में पांच शेर हैं जिन की व्याख्या इस प्रकार है:
अक़्ल है बे-ज़िमाम अभी, इश्क़ है बे-मक़ाम अभी
नक़्शगर-ए-अज़ल! तेरा नक़्श है ना-तमाम अभी ।01।
जब लेनिन ने अल्लाह के सामने अपनी तकलीफ़ को बयान किया तो उनकी हृदय-विदारक बातें सुनकर फ़रिश्तों का दिल भी पिघल गया और वो सब एक साथ मिलकर अल्लाह के सामने अत्यंत आदर और सम्मान से अपनी बात रखने लगे जिसे इक़बाल ने "फरिश्तों का गीत" कहा। यहाँ बहुत अहम बात ये है कि लेनिन की फ़रयाद इतनी असरदार और वज़नदार थी कि फ़रिश्ते (जो कि किसी तरह के एहसास या जज़्बात से वंचित होते हैं) भी उससे प्रभावित हो गए और दया का भाव उत्पन्न कर बैठे ! फ़रिश्ते कहते हैं ऐ अल्लाह! नस्ले आदम में अभी तेरी मुहब्बत मौजूद नहीं है। उनके दिलों (के घरों) में तेरी मुहब्बत नहीं पायी जाती। यदि वो तेरे प्रेम में जीवन व्यतीत करते तो वो इस तरह दूसरे लोगों का शोषण न करते। उनके साथ प्रेम और आदर से पेश आते क्योंकि बन्दों की सेवा करने से ही ईश्वर की प्राप्ति होती है। ये तेरे "इश्क़" का महत्वपूर्ण अंग है। अल्लामा इक़बाल का "इश्क़" का संप्रत्यय (कन्सेप्ट) बहुत ही ज़्यादा बड़ा है। इसका एक बहुत छोटा हिस्सा ये है कि जिसे अल्लाह की तलाश है वो उसके बन्दों से बहुत ज़्यादा प्यार करे। वो इस बात के पक्षधर नहीं कि ईश्वर की तलाश में लोग जंगलों में चले जायें और उसके बन्दों से दूरी बना लें। अल्लामा का इश्क़ तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) से प्रेरित है जो मानव सेवा को दीन का अहम हिस्सा कहता है। अल्लामा एक जगह लिखते हैं:
__________जब लेनिन ने अल्लाह के सामने अपनी तकलीफ़ को बयान किया तो उनकी हृदय-विदारक बातें सुनकर फ़रिश्तों का दिल भी पिघल गया और वो सब एक साथ मिलकर अल्लाह के सामने अत्यंत आदर और सम्मान से अपनी बात रखने लगे जिसे इक़बाल ने "फरिश्तों का गीत" कहा। यहाँ बहुत अहम बात ये है कि लेनिन की फ़रयाद इतनी असरदार और वज़नदार थी कि फ़रिश्ते (जो कि किसी तरह के एहसास या जज़्बात से वंचित होते हैं) भी उससे प्रभावित हो गए और दया का भाव उत्पन्न कर बैठे ! फ़रिश्ते कहते हैं ऐ अल्लाह! नस्ले आदम में अभी तेरी मुहब्बत मौजूद नहीं है। उनके दिलों (के घरों) में तेरी मुहब्बत नहीं पायी जाती। यदि वो तेरे प्रेम में जीवन व्यतीत करते तो वो इस तरह दूसरे लोगों का शोषण न करते। उनके साथ प्रेम और आदर से पेश आते क्योंकि बन्दों की सेवा करने से ही ईश्वर की प्राप्ति होती है। ये तेरे "इश्क़" का महत्वपूर्ण अंग है। अल्लामा इक़बाल का "इश्क़" का संप्रत्यय (कन्सेप्ट) बहुत ही ज़्यादा बड़ा है। इसका एक बहुत छोटा हिस्सा ये है कि जिसे अल्लाह की तलाश है वो उसके बन्दों से बहुत ज़्यादा प्यार करे। वो इस बात के पक्षधर नहीं कि ईश्वर की तलाश में लोग जंगलों में चले जायें और उसके बन्दों से दूरी बना लें। अल्लामा का इश्क़ तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) से प्रेरित है जो मानव सेवा को दीन का अहम हिस्सा कहता है। अल्लामा एक जगह लिखते हैं:
ख़ुदा के आशिक़ तो हैं हज़ारों, बनों में फिरते हैं मारे-मारेफ़रिश्ते आगे कहते हैं कि इश्क़ के अभाव में लोगों की अक़्ल बे-लगाम हो गयी है। इन्सान अपनी अक़्ल को केवल व्यक्तिगत फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहा है। उसे इंसानियत दिखाई नहीं देती। ऐसे माहौल में यह महसूस होता है कि दुनिया में दैनिक मामलों में अत्यधिक सुधार की ज़रुरत है। ऐ आदिकाल से सृष्टि को बनाने वाले!, ऐ समय के रचयिता!, ऐ कायनात के मुसव्विर! तेरी रचना अभी सम्पूर्णता पर विराजमान नहीं। अभी कहीं कमी है।
मैं उसका बन्दा बनूँगा जिस को ख़ुदा के बन्दों से प्यार होगा।
अक़्ल: बुद्धि, विवेक बे-ज़माम:बे-लगाम इश्क़: अल्लाह की मुहब्बत बे-मक़ाम: बे-घर यानि जो अभी मंज़िल पर नहीं पहुँचा। मार्ग में गतिशील होना नक़्शगर: नक़्शा अर्थात तस्वीर बनाने वाला अज़ल: सृष्टि का आरम्भ, आदिकाल जब ब्रह्माण्ड की रचना नहीं हुई थी, अनंतकाल नक़्श: तस्वीर, रचना ना-तमाम: अपूर्ण, अधूरा, ना-मुकम्मल
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ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की घात में रिन्द-ओ-फ़क़ीह-ओ-मीर-ओ-पीर
तेरे जहाँ में है वही गर्दिश-ए-सुबहो शाम अभी ।02।
इस शेर में इक़बाल रिन्द की बात की है। इसका मतलब शराब पीने वालों से है। यहाँ इक़बाल का तात्पर्य पूंजीवादियों से है। पूँजीवादी उपकर्मों को शराबखाने की उपमा दी गयी है। अपनी रचना लेनिन-ख़ुदा के हुज़ूर में इक़बाल कहते हैं:
इस शेर में इक़बाल रिन्द की बात की है। इसका मतलब शराब पीने वालों से है। यहाँ इक़बाल का तात्पर्य पूंजीवादियों से है। पूँजीवादी उपकर्मों को शराबखाने की उपमा दी गयी है। अपनी रचना लेनिन-ख़ुदा के हुज़ूर में इक़बाल कहते हैं:
मयख़ाने की बुनियाद में आया है तज़लज़ुलबैठे हैं इसी फ़िक्र में पीरान-ए-ख़राबात।
फ़रिश्ते अल्लाह से कहते हैं कि पूंजीवादी, कानूनविद, सत्तालोलुप और धर्म के ठेकेदार-ये चारों मिलकर हर वक़्त अल्लाह के मासूम बन्दों यानि ग़रीबों और मज़दूरों का शिकार करने और ख़ून चूसने की फ़िराक में लगे रहते हैं और शोषण का यह चक्र निरंतर चलता रहता है।
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ख़ल्क़-ए-ख़ुदा: ख़ुदा की सृष्टि, वो सारी सजीव और निर्जीव चीज़े जो अल्लाह ने पैदा की हैं। घात: वो जगह जहाँ छुपकर शिकार का इंतेज़ार किया जाए, Lurking Place, Ambush रिन्द: मद्यप, शराबी, पियक्कड़ फ़क़ीह: विधिवेत्ता, कानूनविद (Jurist) मीर: शासक, सत्तालोलुप, इक़्तेदार का भूखा पीर: धर्म के झूठे दावेदार, ख़ुद को धर्म का ठेकेदार समझने वाले गर्दिश: घूमना घूमना, चक्कर खाना, चक्र (Cycle) सुबहो शाम: दिन-रात
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तेरे अमीर माल मस्त, तेरे फ़क़ीर हाल मस्त
बन्दा है कूचा गर्द अभी, ख़्वाजा बुलन्द बाम अभी ।03।
फ़रिश्ते कहते हैं की तेरी दुनिया में अमीर और ग़रीब दोनों ही अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार मस्त हैं। अमीरों की मस्ती उनकी बे-ख़बरी और बेज़ारी के कारण है। वो शून्यचित्त हैं, संवेदनशून्य हो गए हैं। उन्हें ग़रीबों की तंगहाली और कठिनाइयों से कोई सरोकार नहीं। सिर्फ़ अपनी अमीरी में मस्त हैं! दूसरी ओर ग़रीब बन्दे अपनी ग़रीबी से संतुष्ट हैं और कठिनाइयों एवं शोषण को ही जीवन का उद्देश्य समझ बैठे हैं। शायद वे जानते हैं कि उनकी स्थिति नहीं बदलने वाली इसलिए किसी से कोई उम्मीद रखना बेकार है। अत: वे भी मस्त हैं। हालात ये आ गये हैं कि ग़रीब आज भी गली-कूचों की ख़ाक छानते हैं और और ग़ुलामों जैसी ज़िंदगी जीते हैं। वहीं दूसरी ओर उनके पूंजीपति आक़ा ऊँचे-ऊँचे महलों में रहते हैं।
__________फ़रिश्ते कहते हैं की तेरी दुनिया में अमीर और ग़रीब दोनों ही अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार मस्त हैं। अमीरों की मस्ती उनकी बे-ख़बरी और बेज़ारी के कारण है। वो शून्यचित्त हैं, संवेदनशून्य हो गए हैं। उन्हें ग़रीबों की तंगहाली और कठिनाइयों से कोई सरोकार नहीं। सिर्फ़ अपनी अमीरी में मस्त हैं! दूसरी ओर ग़रीब बन्दे अपनी ग़रीबी से संतुष्ट हैं और कठिनाइयों एवं शोषण को ही जीवन का उद्देश्य समझ बैठे हैं। शायद वे जानते हैं कि उनकी स्थिति नहीं बदलने वाली इसलिए किसी से कोई उम्मीद रखना बेकार है। अत: वे भी मस्त हैं। हालात ये आ गये हैं कि ग़रीब आज भी गली-कूचों की ख़ाक छानते हैं और और ग़ुलामों जैसी ज़िंदगी जीते हैं। वहीं दूसरी ओर उनके पूंजीपति आक़ा ऊँचे-ऊँचे महलों में रहते हैं।
अमीर माल: धनी लोग मस्त: बेज़ार, बेख़बर, शून्यचित्त, अन्यमनस्क (Oblivious) फ़क़ीर हाल: ग़रीब, फटे हाल, मुफ़लिस मस्त: संतुष्ट, तृप्त बन्दा: ग़ुलाम, समाज में निचले तबके वाला, शोषित कूचा: गली, मुहल्ला गर्द: धूल, ग़ुबार ख़्वाजा: ग़ुलाम का आक़ा, स्वामी बुलन्द: ऊंची बाम: दीवार
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दानिश-ए-दीन-ओ-इल्म-ओ-फ़न बन्दगी-ए-हवस तमाम
इश्क़-ए-गिरह कुशाए का फ़ैज़ नहीं है आम अभी ।04।
धर्म के विद्वान, तथा ज्ञान और कौशल वाले दूसरे लोग भी पूंजीपतियों के प्रभाव में रहते हैं और विषय-लोलुपता तथा उत्कट इच्छाओं अथवा नफ़स के ग़ुलाम हैं। इसी कारण मज़दूरों को शोषण से मुक्त कराने वाला कोई नहीं है। ये लोग तो पूंजीपतियों के हित अथवा अपने हित के बारे में सोचते हैं। इनके ज्ञान और कौशल का लाभ आम-जनों को नही पहुँचता!
धर्म के विद्वान, तथा ज्ञान और कौशल वाले दूसरे लोग भी पूंजीपतियों के प्रभाव में रहते हैं और विषय-लोलुपता तथा उत्कट इच्छाओं अथवा नफ़स के ग़ुलाम हैं। इसी कारण मज़दूरों को शोषण से मुक्त कराने वाला कोई नहीं है। ये लोग तो पूंजीपतियों के हित अथवा अपने हित के बारे में सोचते हैं। इनके ज्ञान और कौशल का लाभ आम-जनों को नही पहुँचता!
दानिश-ए-दीन: धर्म की विद्व्ता/ विद्वान इल्म: ज्ञान फ़न: कला, कौशल बन्दगी-ए-हवस: विषय लोलुपता, उत्कट इच्छाओं अथवा नफ़स की पैरवी गिरह कुशा: मुक्त करने वाला, बंधन को खोलने वाला फ़ैज़: लाभ, कृपा, रहमत
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जौहर-ए-ज़िन्दगी है इश्क़, जौहर-ए-इश्क़ है ख़ुदी
आह क: है यह तेग़-ए-तेज़ पर्दगी-ए-नयाम अभी! ।05।
जीवन का मूल यह है कि मनुष्य अल्लाह और उसके बन्दों से प्रेम करे। इस प्रेम के लिए परमावशयक है कि इन्सान स्वयं को पहचाने। आत्मज्ञान की और अग्रसर रहे तथा इस दिशा में भरपूर संघर्ष करे। मनुष्य यदि स्वयं को पहचान ले तो वह एक तेज़ तलवार का रूप ले लेगा जो हर तरह के ज़ुल्म, जब्र, शोषण, तथा उत्पीड़न का सर क़लम कर देगी। लेकिन अफ़सोस यह है कि यह
जीवन का मूल यह है कि मनुष्य अल्लाह और उसके बन्दों से प्रेम करे। इस प्रेम के लिए परमावशयक है कि इन्सान स्वयं को पहचाने। आत्मज्ञान की और अग्रसर रहे तथा इस दिशा में भरपूर संघर्ष करे। मनुष्य यदि स्वयं को पहचान ले तो वह एक तेज़ तलवार का रूप ले लेगा जो हर तरह के ज़ुल्म, जब्र, शोषण, तथा उत्पीड़न का सर क़लम कर देगी। लेकिन अफ़सोस यह है कि यह
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जौहर: मूलतत्व, सार, निचोड़ इश्क़: परमात्मा का प्रेम ख़ुदी: अल्लामा इक़बाल का "ख़ुदी" का पैग़ाम बहुत विशाल है। सरल शब्दों में इसे आत्मज्ञान कहा जा सकता है जो जीवात्मा यानि बन्दे को सीधे अल्लाह से मिलाता है। क: कि तेग़-ए-तेज़: तेज़ तलवार पर्दगी-ए-नयाम: तलवार का मियान में छिपना
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