Mard-e-Musalman | मर्द-ए-मुसलमान
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Zarb-e-Kaleem
हर लहज़ा है मोमिन की नयी शान, नयी आन
गुफ़्तार में, किरदार में अल्लाह की बुरहान !
क़हारी-ओ-ग़फ़फ़ारी-ओ-क़ुद्दूसी-ओ-जबरूत
ये चार अनासिर हों तो बनता है मुसलमान !
हमसाया-ए-जिबरील-ए-अमीं, बंदा-ए-ख़ाकी
है इसका नशेमन न बुख़ारा न बदख़शान !
यह राज़ किसी को नहीं मालूम क: मोमिन
क़ारी नज़र आता है, हक़ीक़त में है क़ुरआन
क़ुदरत के मक़ासिद का अयार उसके इरादे
दुनिया में भी मीज़ान, क़यामत में भी मीज़ान
जिससे जिगर-ए-लाला में ठंडक हो, वो शबनम
दरियाओं के दिल जिससे दहल जाएँ वो तूफ़ान
फ़ितरत का सुरूद-ए-अज़ली उसके शब-ओ-रोज़
आहंग में यकता सिफ़त-ए-सूरा-ए-रहमान
बनते हैं मेरी कारगहे फ़िक्र में अंजुम
ले अपने मुक़द्दर के सितारों को तो पहचान !
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