Pareshan Ho Ke Meri Khaak | परेशाँ हो के मेरी ख़ाक
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Bal-e-Jibreel
परेशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए
जो मुश्किल अब है या रब फिर वही मुश्किल न बन जाए.
न कर दें मुझको मजबूर-ए-नवा फ़िरदौस में हूरें
मेरा सोज़-ए-दरूं फिर गर्मी-ए-महफ़िल न बन जाए.
कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को
खटक सी है जो सीने में, ग़म में मंज़िल न बन जाए.
बनाया इश्क़ ने दरिया-ए-नापैदा कराँ मुझ को
यह मेरी ख़ुद-निगाहदारी मेरा साहिल न बन जाए.
कहीं इस आलम-ए-बेरंग-ओ-बू में भी तलब मेरी
वही अफ़साना-ए-दुम्बाला-ए-महमिल न बन जाए.
उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं
क: यह टूटा हुआ तारा महे कामिल न बन जाए.
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